श्रीजनक-दुलारीजी – आरती
आरति श्रीजनक-दुलारीकी।
सीताजी रघुबर-प्यारीकी ॥ टेक ॥
जगत-जननि जगकी विस्तारिणि,
नित्य सत्य साकेत-विहारिणि,
परम दयामयि दीनोद्धारिणि,
मैया भक्तन-हितकारीकी ।। सीताजी० ॥
सती शिरोमणि पति-हित-कारिणि,
पति-सेवा हित वन-वन चारिणि,
पति-हित पति-वियोग-स्वीकारिणि,
त्याग-धर्म-मूरति-धारीकी ॥ सीताजी० ॥
विमल-कीर्ति सब लोकन छाई,
नाम लेत पावन मति आई,
सुमिरत कटत कष्ट दुखदाई,
शरणागत-जन-भय-हारीकी ।। सीताजी० ॥
श्रीजनक-ललीजी- आरती
आरति कीजै जनक-ललीकी।
राममधुपमन कमल-कलीकी ।।
रामचंद्र मुखचंद्र चकोरी।
अंतर साँवर बाहर गोरी।
सकल सुमंगल सुफल फलीकी ॥
पिय दृगमृग जुग बंधन डोरी।
पीय प्रेम रस-राशि किशोरी ॥
पिय मन गति विश्राम थलीकी ॥
रूप-रास-गुननिधि जग स्वामिनि ।
प्रेम प्रबीन राम अभिरामिनि ।
सरबस धन ‘हरिचंद’ अलीकी ॥
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