श्रीविष्णु-वन्दना – आरती
सशङ्खचक्रं सकिरीटकुण्डलं सपीतवस्त्रं सरसीरुहेक्षणम् ।
सहारवक्षःस्थलकौस्तुभश्रियं नमामि विष्णुं शिरसा चतुर्भुजम् ॥
भगवान् श्रीसत्यनारायणजी
जय लक्ष्मीरमणा, श्रीलक्ष्मीरमणा।
सत्यनारायण स्वामी जन-पातक-हरणा ॥ जय० ॥ टेक ॥
रत्नजटित सिंहासन अद्भुत छबि राजै।
नारद करत निराजन घंटा ध्वनि बाजै ॥ जय० ॥
प्रकट भये कलि कारण, द्विजको दरस दियो।
बूढ़े ब्राह्मण बनकर कंचन-महल कियो ॥ जय० ॥
दुर्बल भील कठारो, जिनपर कृपा करी।
चन्द्रचूड़ एक राजा, जिनकी बिपति हरी ॥ जय० ॥
वैश्य मनोरथ पायो, श्रद्धा तज दीन्हीं।
सो फल भोग्यो प्रभुजी फिर अस्तुति कीन्हीं ॥ जय० ॥
भाव-भक्तिके कारण छिन छिन रूप धर्यो।
श्रद्धा धारण कीनी, तिनको काज सर्यो ।॥ जय० ।।
ग्वाल-बाल सँग राजा वनमें भक्ति करी।
मनवाञ्छित फल दीन्हों दीनदयालु हरी ॥ जय० ॥
चढ़त प्रसाद सवायो कदलीफल, मेवा।
धूप-दीप-तुलसीसे राजी सत्यदेवा ॥ जय० ॥
(सत्य) नारायणजी की आरती जो कोई नर गावै।
तन-मन-सुख-सम्पति मन-वाञ्छित फल पावै ॥ जय० ॥
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